माँ तुम हो कितनी अनमोल

गोद में सिर रख कर के अपनी


जब लोरियां सुनाया करती थी तुम


बेखौफ ही नीद के आगोश में चला जाता था मैं

दूर जब से हुआ हूँ तुमसे



नीद भी ठीक से आती नही रात को



सर्द मौसम जब अपने आगोश में लेता था मुझे



चुप से ही पास आकर मेरे



प्यार से चादर उढा जाया करती थी तुम



अच्छा हूँ मैं तुम्हारा दुलारा हूँ मैं



हर पल ही जताती थी तुम



हो मुझे कोई पीड़ा तो दर्द से सिंहर उठती थी तुम



सिरहाने पर बैठकर अक्सर सिर को मेरे सहलाती थी तुम



माँ जब से दौड़ा जिंदगी की दौड़ में



दूर तुमसे होता गया



कभी इस नगर तो कभी उस नगर



अब उस प्यार के स्पर्श को तरस जाता हूँ मैं



लगता है कि जैसे कोई प्यास है जो कभी बुझती नहीं



हाँ माँ तुम हो कितनी अनमोल



और तुम्हारे वो मीठे बोल



हर पल ही याद आते 
हैं मुझे

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