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हर ख़ुशी में कोई कमी-सी है हँसती आँखों में भी नमी-सी है दिन भी चुप चाप सर झुकाये था रात की नब्ज़ भी थमी-सी है किसको समझायें किसकी बात नहीं ज़हन और दिल में फिर ठनी-सी है ख़्वाब था या ग़ुबार था कोई गर्द इन पलकों पे जमी-सी है कह गए हम ये किससे दिल की बात शहर में एक सनसनी-सी है हसरतें राख हो गईं लेकिन आग अब भी कहीं दबी-सी है - जावेद अख्तर
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वो जो हाथ तक से छुने को, बे-अदबी समझता था, गले से लगकर बहोत रोया, बिछडने से जरा पहले......
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ना जाने क्यों रेत की तरह निकल जाते हैं हाथों से वो लोग.... जिन्हें हम ज़िंदगी समझ कर कभी खोना नहीं चाहते............!!
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तेरी यादें भी हैं मेरे बचपन के खिलौने जैसी, तन्हा होते हैं तो इन्हें ले कर बैठ जाते हैं...
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छूट पर लिया था जो सामान वो दूकान पर ही छूट गया, बचाने आया था जो शख्स कल मुझे, आज वही लूट गया. मैं तो समझ नहीं पाता हूँ दुनिया की बहुत सी बातें अब भी, लोगों की उम्मीदों पर खरा न उतरा, मुझसे हर कोई रूठ गया. रात के अँधेरे से नहीं, दिन के उजाले से डरता हूँ मैं सच में, शराफत की दुहाई देने वालों के कारण ही मेरा दिल टूट गया. बेवज़ह दौड़ने या उड़ने में रखा क्या है ? कोई बतलायेगा ? वो आधार जिस पर टिका था मेरा वजूद, हाथ से छूट गया. हल्की-फुल्की बातें करने लगे हैं समाज को रास्ता दिखाने वाले, आदर्श मानते …
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