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वो ग़ज़ल पढने में लगता भी ग़ज़ल जैसा था, सिर्फ़ ग़ज़लें नहीं, लहजा भी ग़ज़ल जैसा था ! वक़्त ने चेहरे को बख़्शी हैं ख़राशें वरना, कुछ दिनों पहले ये चेहरा भी ग़ज़ल जैसा था !
तुमसे बिछडा तो पसन्द आ गयी बेतरतीबी, इससे पहले मेरा कमरा भी ग़ज़ल जैसा था !
कोई मौसम भी बिछड कर हमें अच्छा ना लगा, वैसे पानी का बरसना भी ग़ज़ल जैसा था !
नीम का पेड था, बरसात भी और झूला था, गांव में गुज़रा ज़माना भी ग़ज़ल जैसा था !
वो भी क्या दिन थे तेरे पांव की आहट सुन कर, दिल का सीने में धडकना भी ग़ज़ल जैसा था !
इक ग़ज़ल देखती रहती थी दरीचे से मुझ…
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कोई हाथ भी न मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से,
ये नए मिजाज का शहर है, जरा फ़ासले से मिला करो।
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गुफ्तगू करते रहा कीजिये यही इंसानी फितरत है,
सुना है, बंद मकानों में अक्सर जाले लग जाते हैं...
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बाबू जी
घर की बुनियादें दीवारें बामों-दर थे बाबू जी
सबको बाँधे रखने वाला ख़ास हुनर थे बाबू जी तीन मुहल्लों में उन जैसी कद काठी का कोई न था
अच्छे ख़ासे ऊँचे पूरे क़द्दावर थे बाबू जी अब तो उस सूने माथे पर कोरेपन की चादर है
अम्मा जी की सारी सजधज सब ज़ेवर थे बाबू जी भीतर से ख़ालिस जज़बाती और ऊपर से ठेठ पिता
अलग अनूठा अनबूझा सा इक तेवर थे बाबू जी कभी बड़ा सा हाथ खर्च थे कभी हथेली की सूजन
मेरे मन का आधा साहस आधा डर थे बाबू जी.। आलोक श्रीवास्तव जी
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